श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई थी संकष्टी चतुर्थी व्रत की कथा और पूजा विधि

वैशाख माह के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को भगवान गणेशजी की पूजा और व्रत करना चाहिए। इस व्रत का पूरा फल कथा पढ़ने पर ही मिलता है। इस व्रत में वक्रतुंड नाम के गणेश जी की पूजा करनी चाहिए और आहार में कमलगट्‌टे का हलवा लेना चाहिए। वैशाख माह की संकष्टी चतुथी व्रत के बारे में श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में युधिष्ठिर को बताया था और इसकी कथा भी सुनाई थी। तब से ये व्रत किया जा रहा है।


संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा



  • श्रीकृष्ण बोले, हे राजा युधिष्ठिर! प्राचीन काल में रंतिदेव नामक प्रतापी राजा थे। उनकी उन्हीं के राज्य में धर्मकेतु नामक ब्राह्मण की दो स्त्रियां थीं। एक का नाम सुशीला और दूसरी का नाम चंचला था। सुशीला नित्य करती थीं। जिससे उसका शरीर दुर्बल हो गया था वहीं चंचला कभी कोई व्रत-उपवास नहीं करती थी।

  • सुशीला को सुन्दर कन्या हुई और चंचला को पुत्र प्राप्ति हुई। यह देखकर चंचला सुशीला को ताना देने लगी। कि इतने व्रत उपवास करके शरीर को जर्जर कर दिया फिर भी कन्या को जन्म दिया। मैनें कोई व्रत नहीं किया तो भी मुझे पुत्र प्राप्ति हुई।

  • चंचला के व्यंग्य से सुशीला दुखी रहती थी और गणेशजी की उपासना करने लगी। जब उसने संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत किया तो रात में गणेशजी ने उसे दर्शन दिए और कहा कि मैं तुम्हारी साधना से संतुष्ट हूं। वरदान देता हूं कि तेरी कन्या के मुख से निरंतर मोती और मूंगा प्रवाहित होते रहेंगे।

  • तुम सदा प्रसन्न रहोगी। तुम्हे वेद शास्त्र का ज्ञाता पुत्र भी प्राप्त होगा। वरदान के बाद से ही कन्या के मुख से मोती और मूंगा निकलने लगे। कुछ दिनों के बाद एक पुत्र भी हुआ। 

  • बाद में उनके पति धर्मकेतु का स्वर्गवास हो गया। उसकी मृत्यु के बाद चंचला घर का सारा धन लेकर दूसरे घर में रहने लगी, लेकिन सुशीला पतिगृह में रहकर ही पुत्र और पुत्री का पालन पोषण करने लगी।

  • इसके बाद सुशीला के पास कम समय में ही बहुत सा धन हो गया। जिससे चंचला को उससे ईर्ष्या होने लगी। एक दिन चंचला ने सुशीला की कन्या को कुएं में ढकेल दिया। 

  • लेकिन गणेशजी ने उसकी रक्षा की और वह सकुशल अपनी माता के पास आ गई। उस कन्या को देखकर चंचला को अपने किए पर दुख हुआ और उसने सुशीला से माफी मांगी। इसके बाद चंचला ने भी कष्ट निवारक संकट नाशक गणेशजी के व्रत को किया।